दिल्ली में प्रारंभिक तीन साल

 

अलीगढ़ के जिलाधीश के कार्यकाल के बाद  पिताजी केन्द्र सरकार के गृह मंत्रालय में उप सचिव नियुक्त हो गए। पिताजी के मित्र छतारी के नवाब जो उत्तर प्रदेश के राज्यपाल रह चुके थे सांसद थे। उनको नई दिल्ली में निवास मिला हुआ था। वह बहुत बड़ा तो नहीं था लेकिन  सुविधा जनक था। पिताजी का सचिवालय वहाँ से दो  मील से ज्यादा दूर नहीं था और कनाॅट प्लेस भी एक मील से कम दूरी पर था। उसका पता मुझे आज भी याद है। 14 B फिरोज़शाह मार्ग। वह हमारा अस्थायी आवास बन गया। जब पहली बार  वहाँ पहुंचे तो मैं चौंक गया। क्योंकि घर छोटा था। यहाँ न कोई चपरासी, न कोई गाड़ी, न कोई ड्राईवर, न कोई नौकर। अलीगढ़ के जिलाधीश निवास के बाद यह महानगर का आवास अटपटा सा लगा। पिताजी ने कहा अब हम लोग co-operative commonwealth की तरह रहेंगे। मैने पूछा कि इस का क्या मतलब है। पिताजी ने कहा कि इस का मतलब है कि अपना सब काम अपने आप करेंगे। जैसे कि अपने जूते अपने आप साफ करेंगे, अपना बिस्तर अपने आप लगायेंगे, और जैसा जीजी कहेंगी करेंगे। नई दिल्ली में रहने की यह  चुनौती थी।

 

शायद जनवरी के महिने में दिल्ली आये थे - हो सकता है फरवरी का महिना हो। ठीक से याद नहीं है। पिताजी के लिए मुझे, शचीन्द्र और नरेन्द्र को स्कूल भेजना अब एक मुद्दा बन गया। मेरा अनुमान है कि पिताजी ने अपने जानकार श्री परमेश्वरी प्रसाद जी और श्री एस एन गुप्ता जी से हमारे स्कूल में दाखिले कि चर्चा की होगी। क्योंकि उन दोनों के बेटे हारकोर्ट बटलर विद्यालय में पढ़ रहे थे और पिताजी हम तीनों को दाखिले के लिए हारकोर्ट बटलर विद्यालय ले  गये। क्या परिस्थिति रही होगी यह तो केवल पिताजी ही बता सकते हैं। इस विद्यालय के प्रधानाचार्य श्री एस लाल ने केवल हमें कक्षा में बैठने  की अनुमति दी होगी। यह मेरी सोच है। मेरी आयु SLC के अनुसार उस समय 12 भी नहीं थी।  मेरठ से मेरे जन्म के कागज ला कर पिताजी को मेरी आयु ठीक करानी पड़ी थी। इसका जिक्र मैंने अपने बचपन वाले लेख में  कर रखा है। मैं तो कक्षा 9 के लिये तैयार नहीं था। हारकोर्ट बटलर विद्यालय में पढ़ाई शुरू से ही अंग्रेजी में थी।  मैंनें अंग्रेजी पढ़ना दर्जा 6 से आरम्भ किया था। मेरी तीन साल की अंग्रेजी की शिक्षा शिकोहाबाद के स्कूल में नाम मात्र की थी। JBT(Junior Basic Training) के विद्यार्थी शिक्षकों ने ही मुझे अंग्रेजी पढ़ाई थी। उनको खुद ही अंग्रेजी नहीं आती थी। हारकोर्ट बटलर विद्यालय के अध्यापक  अंग्रेजी के माध्यम से सब विषय पढ़ाते थे और मुझे कुछ समझ नहीं आता था।

 

हारकोर्ट बटलर विद्यालय की दो स्कूल बसें तो थी लेकिन उनके route में हमारा घर नहीं पड़ता था। कैम्प कौलेज के बस स्टौप से बस लेते थे। वहाँ से बस ले कर मद्रास होटल या सिन्धिआ हाउस उतर कर  आगे पैदल घर  जाते थे। ऐसा याद पड़ता है कि कई बार तो स्कूल से पूरे रास्ते पैदल चल कर घर पहुँचते थे। पिताजी भी दफ्तर पैदल जाते थे। कहते थे कि मुझे पैदल चलना अच्छा लगता है और मैं रास्ते भी जानपा रहा हूँ।

 

कुछ समय बाद पिताजी को स्थायी आवास चाणक्य पुरी में मिल गया। उसका पता था 24 D1, Diplomatic Enclave । नये सरकारी फ्लैट बने थे। हमें एक नया फ्लैट मिला था। यह अशोक होटल से करीब 1 मील आगे था। हमारी कौलोनी और विनय नगर (अब सरोजनी नगर) के बीच में रिन्ग रेल्वे लाइन थी। रेल्वे लाइन के ऊपर या नीचे कोई पुल नहीं था। विनय नगर मार्केट जाने के लिए रेल्वे लाइन के ऊपर से जाना पड़ता था।

 

गर्मीयों की छुट्टियों के बाद मेरा दाखिला कक्षा 9 में हारकोर्ट बटलर विद्यालय में हो गया और शचीन्द्र-नरेन्द्र का दाखिला मौडर्न स्कूल में हो गया। इन्हें किन-किन कक्षाओं में दाखिला मिला मुझे मालुम नहीं। मुझ से कई लोगों ने प्रश्न पूछा कि मैं मौडर्न स्कूल में कयों नही पढ़ा? इसका  उत्तर स्वभाविक एवम् साधारण  है। हारकोर्ट बटलर स्कूल उस समय  दिल्ली के अच्छे स्कूलों में से एक  था। हारकोर्ट बटलर स्कूल के प्रिन्सिपल श्री एस लाल Oxford University के BA (Oxon) थे। इस विद्यालय के mathematics के शिक्षक श्री पी डी माथुर और physics के शिक्षक श्री पी के रौय जैसे शिक्षक शायद ही दिल्ली के किसी स्कूल में होंगे। इस स्कूल की प्रयोगशालाएँ अच्छी थीं और उनका प्रयोग पाठ्यक्रम में सुचारु रूप से करा जाता था। हारकोर्ट बटलर स्कूल अँगरेज़ों ने अपने बाबुओं के बच्चों की शिक्षा के लिए स्थापित करा था। इस स्कूल की एक शाखा शिमला में भी थी। अंग्रेज़ी सरकार के साथ उसके बाबू अपने बच्चों के साथ गर्मीयों में नई दिल्ली से शिमला जाते थे। शायद आज के केन्द्रिय विद्यालय हारकोर्ट बटलर स्कूल के आधार पर स्थापित किये गये हैं।

 

उस समय मेरी समस्याएँ कुछ और हीं थीं। पहली समस्या थी पढ़ने-पढ़ाने का माध्यम। वह हारकोर्ट बटलर स्कूल में अंग्रेजी था। अंग्रेजी में मैं कमजोर था।   दूसरी समस्या थी geometrical and mechanical drawing। यह विषय मुझे ठीक से पढ़ाया नहीं गया । इसलिए अच्छा नहीं लगता था ।  इसको सीखने का अभ्यास भी नहीं करता था। geometry में मेरी क्षमता 55 साल  के बाद बाहर निकली जब मैंने स्वयं hyperbolic geometry समझी और उससे geometrical patterns बनाए। ये दोनों विषय मेरे गले में चक्की के पत्थर का बोझ बन गए। इन के कारण मेरी शैक्षिक प्रगति पर  असर पड़ा। आज पीछे देखता हूँ तो इस निष्कर्ष पर आता हूँ कि इनसे बाहर  निकलने में मुझे पाँच साल लगे। अगर मैंने इन समस्याओं को पिताजी को बताया होता इनका समाधान अवश्य निकलता। मुझे संकोच था कि पिताजी को यह जानकर आश्चर्य होगा कि उनका पुत्र अंग्रेजी में कमजोर है। पिताजी के पास उत्तर प्रदेश में अंग्रेजी विषय में दर्जा दस की परीक्षा में सबसे अधिक अंक पाने का श्रेय था। शिकोहाबद के अहीर डिग्री कौलेज के Honour Roll में इस उपलब्धि के लिए पिताजी का नाम अंकित  है। मेरा स्वभाव है अपनी समस्याओं का समाधान  स्वयं ढूँढना।  अपनी समस्याओं का चर्चा करना  भी मुझे ठीक नहीं लगता। अपने भविष्य के बारे में  उन दिनों सोचा ही नहीं और न ही किसी से चर्चा की । Maths और Physics मेरे प्रिय विषय थे और दोनों में कुशल था। कौलोनी में मेरी धाक थी कि maths की कोई भी problem हल कर सकता हूँ। मेरे दो सहपाटी सतीश पुरी और सुरेश गुप्ता हमारी कौलोनी में रहते थे। मैं दोनों का maths ट्यूटर था। वे दोनों क्रिकेट के खिलाड़ी थे। स्कूल की क्रिकेट टीम के सदस्य थे। वे दोनों मेरे हीरो थे क्योंकि मैं कोई खेल नहीं खेलता था।

 

पिताजी ने शिकोहाबाद से अपनी वाॅक्सहौल कार और मेरे लिए अपनी पुरानी साइकिल मंगायी। वाॅक्सहौल कार के बारे में एक लेख लिख चुका हूँ। मैं नई साइकिल चाहता था। पर मुझे मिली तीस साल पुरानी साइकिल!  इस साइकिल के हैन्डल में जंग लगा हुआ था। मैंने साइकिल को पेन्ट कराया। उस पर पेन्टर ने एक मृग की तस्वीर  बना दी और लिखा HIND. मेरे लिए यह हिन्द साइकिल बन गयी। साइकल  से स्कूल जाता था। अशोक होटल होते हुए विलिंगडन क्रीसैंट,  तालकटोरा बाग, मन्दिर मार्ग होते हुए स्कूल पहुंचता था। एक तरफ का रास्ता पैंतालीस मिनट से एक घन्टे में तय कर पाता था। ट्रैफिक हलका था। उन दिनों साइकिल सामान्य साधन थी। महानगर का माहौल शान्त और सभ्य था। किसी तरह का किसी को भय नहीं था। ऊँचे पद वाले सरकारी अफसरों के पास भी निजी ड्राइवर नहीं होते थे। माता-पिता   बच्चों को निश्चिन्त हो अकेले बस से स्कूल भेजते थे। नरेन्द्र का मित्र शेखर और उसका छोटा भाई जो किन्डरगार्टन में था अन्य बच्चों के साथ बस से मौडर्न स्कूल जाते थे। आज मेरी नौकरानी भी अपने तीन बच्चों को 3 किमि दूर स्कूल टैक्सी से भेजती है। वह समय आज के समय से बिलकुल भिन्न था।

 

जीजी का बाजार का सारा काम मैं साइकिल से करता था। विनय नगर मार्केट जाने के रास्ते में साइकिल को हाथ से उठा कर रेल्वे लाइन पार करता था। मेरे लिए छुट्टी के दिन साइकिल से पहाड़गँज जा कर सब्जी लाना साधारण सी बात थी। खेलने के लिए मुझे समय नहीं मिलता था। मैं दुबला-पतला था। शायद कमजोर दिखता हूँगा। रोज 25-30 किमि साइकिल चलाता था। वजन कैसे बढ़ता? पिताजी को मेरी सेहत की चिन्ता हुई। पिताजी ने अपने मित्र डाॅक्टर शर्मा जो अलीगढ़ के सिविल सर्जन थे मेरे बारे में बात की। डाॅक्टर शर्मा ने कहा कि अमरनाथ को कुछ दिन के लिए मेरे पास भेज दो। मुझे यह सुझाव बहुत पसन्द आया।

 

अकेले सफर करने में सक्षम था। अपने आप रेल से अलीगढ़ पहुंच गया। डाॅक्टर शर्मा का छोटा लड़का मेरी उम्र का था। उसकी जुड़वा  बहन थी नीलू। वह हँसमुख और सुन्दर थी। मैं 13 साल का था। क्रिसमस की छुट्टियाँ रही होंगी। क्योंकि एक दिन क्रिसमस मनाने के लिए मुख्य नर्स के बुलावे पर डाॅक्टर साहब  के लड़के के साथ मैं अस्पताल गया था। उन दिनों भी केरला की नर्स अलीगढ़ जैसे शहर में काम करती थीं। दस दिन खेल-खेल में बीत गए।सारा दिन रेडिओ से फिल्मी गाने सुनते थे । सबसे लोक प्रिय कार्यक्रम बिनाका गीत माला था। पिताजी का रेडीओ हम लोग नहीं छूते थे। चलते समय डाॅक्टर साहब ने डाइट बना कर दी। उसमें रोज अन्डा खाने के लिए लिखा । बाबाजी को जब यह पता चला उन्होंने कहा अमरनाथ अन्डा नहीं खायेगा। पिताजी को अन्डे पसन्द थे। दिल्ली में कभी अन्डे नहीं खाए। लेकिन शिमला में जब जीजी नहीं होती थीं हम सब बच्चे और पिताजी अन्डे बनवाकर चाव से खाते थे।

 

बच्चे स्कूल जाते, पिताजी दफ्तर जाते, जीजी मेहमानों से भरे घर को सम्भालती। हम सबका दिल्ली में जीवन सामान्य हो गया। अब नई परिस्थितियों का जिक्र करूँगा। बाबाजी ने जीजी को उनके साथ भारत भ्रमण यात्रा में जाने के लिए बुलाया। जीजी के जाने के बाद दो महिनों के लिए बच्चे पिताजी की जिम्मेदारी हो गए। पिताजी को समय-समय दौरे पर भी जाना पड़ता था। पिताजी के लखनऊ के साथी के छोटे बेटे हमारे साथ रहने के लिए आगए। उन्हें हम निगम भाई साहब कहते थे। निगम भाई साहब सफ्दरजँग हवाई अड्डे में काम करते थे। शायद maintenance engineer थे। बहुत अच्छे स्वभाव के थे। उनके साथ हम तीनों बच्चे खुश थे। एक दिन शचीन्द्र को नई क्रिकेट की गैन्द सड़क पर पड़ी मिली। वह बहुत खुश था। उसने हाथ घुमाकर निगम भाई साहब को अपनी गैंद दिखायी। गैन्द सैन्टर टेबिल पर गिरी और उसका शीशा टूट गया। पिताजी दौरे पर शहर के बाहर थे। निगम भाई साहब ने टेबिल पर नया काँच लगवा दिया। पिताजी दौरे से वापिस आये। फिर से हाथ घुमाकर शचीन्द्र ने अपनी क्रिकेट की गैन्द  दिखायी। गैन्द हाथ से छूटी और सैन्टर टेबिल का शीशा टूटा! पिताजी ने कहा यह गैन्द शुभ नहीं है और इसे तुम जहाँ से मिली थी वहाँ वापिस रख आओ। गैन्द का शुभ-अशुभ होना शचीन्द्र को समझ नहीं आया। पर नई क्रिकेट की गैन्द हाथ से गई।

 

   उस साल हम तीनों के जन्म दिन मनाये गये। निगम भाई साहब के साथ दो बार तो अवश्य कश्मीरी गेट गए। वहाँ एक sports goods की दुकान थी। जिसका जन्म दिन था वह अपने पसन्द के बैट-बौल खरीदता। नरेन्द्र के जन्म दिन पर गुप्ता जी के बड़े बेटे राजेन्द्र भाई साहब ने बेबी-ब्राउनी कैमरा दिया। वह कैमरा सुन्दर और अच्छा था। अब हमारे पास अपना कैमरा हो गया। उस कैमरे से मैंने कई यादगार तस्वीरें खींची हैं। उन तस्वीरों से जुड़ी यादें आगे बताऊँगा।

 

जीजी-पिताजी धार्मिक प्रवृत्ति के रहे हैं। घर मैं पूजा-पाठ नहीं होता था। न ही हम मन्दिर जाते थे। जीजी-पिताजी साधु-सन्तों के सम्पर्क में रहते थे। साधु-सन्त आते रहते थे और घर में सत्संग-कीर्तन होता था। तीन संत जिनसे घर पर मिला हूँ उनमें प्रमुख थे स्वामी शान्तानन्द जी। एक बार स्वामी शान्तानन्द जी के प्रवास में माताजी की छोटी बेटी स्निग्धा बुआजी (पेषी माँ) कलकत्ता से आयीं। स्निग्धा बुआजी तानपूरे के साथ भजन गाती थीं । स्वामीजी के भक्तों में देश के अनेक गण्यमान व्यक्ति थे। एक शाम देश के गृह मन्त्री श्री गुलजारी लाल नन्दा के घर स्वामीजी कासत्संग हुआ। एक शाम देश के राष्ट्रपति श्री राजेन्द्र प्रसाद जी के निवास में स्वामीजी का सत्संग हुआ। हम तीनों बच्चे इन दोनों सत्संगों में गए। स्वामीजी के प्रवचनों पर मैंने कोई ध्यान नहीं दिया होगा क्योंकि कुछ याद  नहीं है ।लेकिन स्निग्धा बुआजी के भजन आज भी याद हैं।

 

दूसरे संत थे बाबा नीम करौली। बाबा नीम करौली अपने भक्तों को अचानक दर्शन देते थे। उनका आने-जाने का कोई कार्यक्रम नहीं होता था। उनके भक्तों की धारणा थी कि बाबा प्रकट हो जाते हैं और स्वयं अदृश्य हो जाते हैं। इस धारणा की सच्चाई के बारे में मैं नहीं जानता। जब बाबा किसी भक्त के घर पहुँचते उनके भक्त एक दूसरे को सूचित कर दर्शन के लिये एकत्रित हो जाते थे। उनके भक्त सभी धर्मों के थे। मैंने पिताजी के मित्र श्री और श्रीमती चित्सी को बाबा के पास बैठे हुए देखा है। बाबा प्रवचन नहीं देते थे। भक्तों से बात करते थे जैसे कोई बुजुर्ग अपने बच्चों से बात कर रहा है। बाबा जब किसी भक्त के सिर पर हाथ रखते वह समाधी में चला जाता। यह तो मैंने अपनी आँखों से देखा है। एक दिन बाबा ने ताऊजी (अम्बा दत्त पांडे) के बेटे अमित के सिर पर हाथ रख दिया। वह तुरंत समाधी में चला गया। कुछ समय बाद अमित को समाधी की अवस्था से बाबा ने बाहर निकाला। बाबा के दो और किस्से जिन्हें याद करना मुझे अच्छा लग रहा है यहां लिख रहा हूँ। बाबा ने ताऊजी-ताईजी को कहा भोला तुम्हारे बेटा समान है। इस के बाद  मुझे अमित को चाचा कह कर छेड़ने का बहाना मिल गया।

 

दूसरा किस्सा बाद का है। ताऊजी-ताईजी के साथ  बाबा नीम करौली के दर्शन के लिए पिताजी के मित्र श्री आर के त्रिवेदी के घर गया। जब प्रणाम करने के लिये बाबा नीम करौली के पास गया उन्होंने कहा क्या तू भोला का लड़का है। तू पढ़ने में तेज है। स्टीव जाॅब की जीवनी में मैंने पढ़ा कि वह बाबा नीम करौली से दीक्षा लेने के लिये इन्डिया आया। जब तक स्टीव जाॅब बाबा नीम करौली के आश्रम कैंची पहुँचा उनका स्वर्गवास हो चुका था।

 

तीसरे संत जिनके सम्पर्क में जीजी-पिताजी थे उनको ब्रह्मऋषि बालानन्द के नाम से जाना जाता था। ब्रह्मऋषि बालानन्द ने देश की स्वतंत्रता से पूर्व अनेक बार नंगे पैर कैलाश-मानसरोवर की यात्रा कर रखी थी। मैं भी उनके सम्पर्क में आया लेकिन कुछ वर्षों के बाद। लगभग बारह साल बाद मेरा बालानन्द जी के साथ केदारनाथ जाने का कार्यक्रम बना। यह दिलचस्प किस्सा मेरी शादी के साथ जुड़ा है। इसका वर्णन मेरी जीवन यात्रा में आगे आता है।

 

जीजी-पिताजी श्री अरविन्द और श्री माँ की साधना के अनुयायी रहे हैं। जीजी-पिताजी ने मेरी बड़ी बहन राधा को छोटी उम्र में श्री अरविन्द आश्रम के स्कूल में पढ़ने के लिये भेजा था। राधा जीजी से मिलने शायद एक-दो बार पांडिचेरी दिल्ली से गए थे। एक बार जनता गाड़ी के एक छोटे डिब्बे में केवल हम पाँच लोग ही थे। दिल्ली से मद्रास तक का सफर दो दिन से ज्यादा का था। मुझे बहुत आनन्द आया। पांडिचेरी में श्री गणपतराम जी ने समुद्र के समीप एक घर में रहने का प्रबन्ध करा था। श्री गणपतराम जी श्री अरविन्द आश्रम के साधक थे और राधा जीजी के छात्रावास के संरक्षक थे। जहाँ हम ठहरे थे उसके आस-पास कई चर्च थे। हर रविवार को चर्च के घन्टों से सारा वातावर्ण गूँज उठता था। श्री गणपतराम जी को हम सब बड़े भाईजी कहते थे। बड़े भाईजी का मेरे जीवन पर अमिट प्रभाव पड़ा। मैं श्री गणपतराम जी के साथ 1964 में एक महिना पांडिचेरी रहा। यह मेरे पढ़ने के लिए विदेश जाने के साथ जुड़ा है। यह भी मेरी जीवन यात्रा में आगे आता है।

 

हमारा दो बैड-रूम का छोटा फ्लैट था। उसमें कैसे एक साथ अनेक अतिथियों को जीजी-पिताजी ठहराते थे उनको ही मालुम है। याद पड़ता है एक बार गणतंत्र दिवस की परेड देखने आगरा से अपनी  पत्नी सहित डाॅक्टर नवल किशोर और एक दूसरा दम्पती आए। जीजी के पास उन दिनों कोई नौकर भी नहीं था। अतिथियों के साथ हम बच्चे भी परेड देखने गये। इस बार मेरे पास  बेबी-ब्राउनी कैमरा था। बिना किसी रोक-टोक के मैं जहाँ से राष्ट्रपति सलामी लेते हैं पहुँच गया। मुझे सुरक्षा कर्मियों ने नहीं रोका। मेरी याददाश्त धोखा खा रही है लेकिन मुझे ऐसा याद आ रहा है कि मैंने प्रिन्स फिलिप की तस्वीर खींची थी। इन्टरनैट से पता लगा है कि इन्गलैन्ड की रानी 1961 के परेड की मुख्य अतिथि थीं। मैं उस साल परेड देखने नहीं गया था। खैर Beating  the Retreat कार्यक्रम  देखने गया। मैं आगे की पंक्ति में और बच्चों के साथ बैठ गया। प्रधान मंत्री श्री जवाहर लाल नेहरू आये। मैंने अपना हाथ बढ़ा दिया। पंडित नेहरू ने मेरा हाथ पकड़ लिया। यह एक मधुर यादगार है।

 

मैं जब 14 या 15 साल का था मेरा सम्पर्क एक ऐसे व्यक्ति से हुआ जिनका मेरे जीवन में अनपेक्षित योगदान रहा है। वे व्यक्ति थे शिक्षाविद् डाॅक्टर रामकरण सिंह। डाॅक्टर रामकरण सिंह बाबाजी के शिकोहाबाद निवासी मित्र फूलन सिंह के जानकार थे। उन्होंने 1930 के दसक में हारवर्ड विश्वविद्यालय से D.Phil की उपाधी प्राप्त की थी। डाॅक्टर आर के सिंह आगरा के बलवन्त राजपूत कौलेज के प्रिन्सिपल थे। श्रीमती सूरज कुमारी सिंह M.Ed. पढ़ने दिल्ली आयीं थीं। डाॅक्टर आर के सिंह शिक्षा मंत्रालय में उप-सलाहकार हो कर दिल्ली आए थे। हमारे घर के पास ही उन्हें आवास मिला था। जब मैं उनसे पहली बार मिला बहुत खुश हुए । जब भी मिलता था प्रोत्साहित करते थे। उनका लड़का किरण और मैं सम-आयु थे। पारिवारिक सम्पर्क के अलावा किरण के साथ खेलने मैं उनके घर जाता रहता था। किरण के पास एक एयर-गन थी उस से निशाना लगाना मुझे अच्छा लगता था। डाॅक्टर आर के सिंह का मेरे जीवन में योगदान अगर यहाँ लिखता हूँ तो भविष्य को वर्तमान में खोलना सा हो जायेगा। हाँ, यह मुझे मालुम है कि राधा जीजी के पांडिचेरी से वापिस आने की बात जब पिताजी ने डाॅक्टर आर के सिंह से की होगी उनकी सलाह थी, ‘महेश्वरी, लड़की की शादी की चिन्ता छोड़ो, उसको पढ़ाओ और graduation कराओ। यह मुझे  कुछ वर्षों के बाद शायद डाॅक्टर आर के सिंह जिन्हें मैं अन्किल कहता था स्वयं बतायी थी।

 

   अब मैं जीजी-पिताजी के साथ जुड़ी अविस्मरणीय स्मृतियाँ याद कर रहा हूँ। एक शाम जीजी-पिताजी को पड़ोस में अपने मित्र चिस्ती साहब के घर भोजन के लिए जाना था। वैसे तो बाहर से ताला लगाकर ये लोग जाते थे लेकिन उस दिन उन्होंने कहा, अमरनाथ अन्दर से दरवाजा बन्द कर लो। मैंने अच्छी तरह से दरवाजे बन्द कर लिये। जाड़े के दिन थे, अन्दर के कमरे का जहाँ हम तीनों भाई तखत पर पढ़ते-सोते थे दरवाजा बन्द कर लिया। कुछ देर बाद हम तीनों भाई सो गये। जीजी-पिताजी वापिस आये और घन्टी बजाई। हम तीनों गहरी नींद में थे। टेलिफोन जो हमारे कमरे में था उससे भी कई बार घन्टी बजायी। लेकिन हम तो कुम्भकरण की नींद में थे। जीजी-पिताजी ने रात दरवाजे के बाहर सीढ़ियों पर बैठ कर बितायी। जीजी ने पिताजी से आश्वासन ले लिया था कि वे बच्चों को कुछ नहीं कहेंगे। सुबह पाँच बजे के पास फिर से घन्टी बजायी। इस बार मैं उठ गया और मैंने दरवाजा खोला। जीजी-पिताजी से कहा आपकी पार्टी लम्बी चली। पिताजी गुस्से में रहे होंगे। लेकिन मुझ से इतना ही कहा, बड़े हो गये हो जिम्मेदार बनो।

 

दूसरा किस्सा भी मजेदार है। पिताजी सुबह बैंत ले कर टहलने शान्ति पथ जाते थे। जाते समय हमें उठा देते थे और हमें अपनी पढ़ाई करनी होती थी। एक रात हम गहरी नींद में थे पिताजी ने उठा दिया। गोदी में किताब रख हम ऊँघने लगे। पिताजी को कोई साथी सड़क पर  नहीं मिला। उन्होंने सड़क के बिजली के खम्बे की रोशनी में समय देखा। रात के एक बजे थे। पिताजी वापिस घर आये और हम से कहा सो जाओ। हम तुरन्त फिर से वापिस सो गये।

 

एक-दो पिताजी से जुड़ी बातें याद आ रहीं हैं। पिताजी Flying Club के सदस्य थे। घर के पास सफ्दरजंग हवाई अड्डा gliding करने जाते थे। पिताजी बाल कनाॅट प्लेस जाकर Plaza Saloon में कटवाते थे। पिताजी अपनी मूँछें trim कर रखते थे। घर से बाहर जाने से पहले मुस्कराकर चेहरा अवश्य देखते थे।

 

   हमारी वाॅक्स हौल गाड़ी बहुत खड़-खड़ कर चलती थी। दिल्ली में एक नई सड़क बनी थी, शायद रिन्ग रोड रही हो। वहाँ हमारी गाड़ी भी चुप हो जाती थी। गाड़ी की चुप्पी सुनने के लिए पिताजी कई बार ड्राॅइव पर ले गये। इसकी कुछ दिन बात जरूरत नहीं पड़ी। पिताजी ने नई गाड़ी खरीद ली। वह गाड़ी सुन्दर थी। सफेद रंग की थी। उसका नाम बेबी हिन्दुस्तान था। वह गाड़ी हमारे पास ज्यादा समय नहीं रही। पिताजी का तबादला शिमला हो गया। वहाँ उन्हें निजी गाड़ी की जरुरत नहीं थी।

 

   हमारे निकटतम पड़ौसी भाटिया साहब थे। उनका लड़का कमल और मैं एक कक्षा में थे। लेकिन अलग-अलग स्कूलों में। कमल Anglo Arabic School में पढ़ता था। हम दोनों साथ गप-शप करते थे। बाहर का कोई खेल हम ने साथ नहीं खेला। ज्यादा समय किताब से क्रिकेट खेलते थे।

 

अन्दाज भी नहीं हुआ कि हमें दिल्ली में रहते तीन साल बीत गये। मेरे बोर्ड की परीक्षा समीप थीं। पिताजी शिमला चले गये। जीजी नहीं गयीं और मेरी जिम्मेदारी सम्भाली। मेरी परीक्षा शुरू हुँयी। परीक्षा लिखने के लिये पहाड़गंज के किसी स्कूल में साइकिल से जाता था। एक घन्टा पहुँचने में लगता था।।अन्ग्रेजी की परीक्षा से पहली रात को कमल का टेलिफोन आया। वह मुझ से बात करना चाहता था। उसे परीक्षा में जिस विषय पर essay लिखना था पता चल गया था। जीजी ने कमल को कहा मैं सो गया हूँ। अगर उस essay का मुझे नाम पता भी चल जाता मैं उसकी तैयारी करने की स्थिति में नहीं था। मुझे अपने भविष्य की चिन्ता नहीं थी। न ही इसके बारे में सोचा कि मेरा परीक्षा में प्रदर्शन कैसा रहेगा।  क्या मेरी first division भी आ पायेगी। इस का भी भय नहीं हुआ।

 

   जब पीछे मुड़ के अपनी जिन्दगी देखता हूँ तब इस निष्कर्ष पर आता हूँ कि दिल्ली के ये पहले तीन साल मेरे जीवन के सबसे महत्वपूर्ण हैं।  इन तीन वर्षों में मैं पूर्ण विकसित और आत्मनिर्भर हो गया था। अब मैं उच्च शिक्षा के लिये तैयार था।

 

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