जीवन-कला

 

नानक चन्द जैन

 

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जीवन-कला शब्द दो शब्दों से बना है - एक जीवन, एक कला।

 

जीवन किसको कहते हैं ? स्वाधीनता और किसी दूसरे पर निर्भर होना - यही जीवन की सबसे बड़ी जरुरत है। जो पुरुष अपने आप स्वयं जीवित नहीं रह सकता है, उसका जीवन होते हुए भी होने के बराबर है। क्योंकि पराधीनता ही सबसे बड़ा दुख है। जीवन के लिए स्वाधीनता होना अति आवश्यक है।

 

और स्वाधीनता काहे में है? किसी चीज से भी डरना नहीं। डर का समस्त रुप से निराकरण होना - यही दूसरी निशानी जीवन की है। तीसरी बात - जीवन के लिए किसी इच्छा का होना। ये तीनों बातें ही जीवन है।

 

अगर किसी चीज की हमें इच्छा रहती है तो पराधीनता स्पष्ट स्वयं ही है। अगर हम डरते हैं तो भी हमारा जीवन बिल्कुल खराब हो जाता है। और डर ही इच्छा को पैदा करनेवाला होता है। हाँ, यह बात जरुर है कि डर का होना और इच्छा का होना बेहोशी के बिना हो। ऐसे नहीं जैसे कोई पागल पुरुष किसी भी चीज की उसको परवाह है, वह किसी से डरता है। इसमें तो कोई दुख-सुख नहीं है। क्योंकि सबसे बड़ा दुख तो पागलपन ही है। उसको अपनी खबर नहीं - वह सुख को भी पहचानता नहीं, जानता नहीं। इसलिए वह क्या है - उसका तो जीवन कुछ ही समय में खत्म हो जाता है।

 

इन तीनों बातों को स्वयं स्वाधीन और निडर और निरइच्छुक - और हम कैसे हों - ये पागलपन से नहीं। अपने आप को जानते हुए, पूरी तरह से खबरदार होते हुए हो, सावधान होते हुए ये बातें हों - तब जीवन सर्व-सुन्दर है। बगैर ज्ञान के, सिर्फ हम दुख से बेखबर हो सकते हैं, लेकिन सुखी नहीं हो सकते। इसलिए. जीवन क्या है ? वह स्वाधीनता है, निडरपना है, किसी इच्छा का होना है। और, ये तीनों बातें ज्ञान सहित हों। तब जीवन है।

 

अब इसके बाद दूसरी चीज रह गई कला। कला किस को कहते हैं जिससे कार्य की सिद्धि सबसे आसान तरीके से हो, पूरे तौर पर हो और जो तरीका हम लेवें उससे अवश्य उस कार्य की सिद्धि हो, उसी को कला कहते हैं। हर एक आदमी जिसको कर सके, जो सबसे आसान हो और आसान तरीके पर करते हुए भी, उसका जो फल है, वह जरुर जैसा हम चाहते हैं, वैसा हो - उसको कला कहते हैं। तो इसलिए जो जीवन था, वह कैसे आसान हो और कैसे निश्चित रुप से हो - यही दो बातें रह गई।

 

निडर हम कैसे हों, यह सबसे पहला सवाल हैं। निरच्छुक कैसे हों, यह दूसरा सवाल हैं। तीसरा यही कि हम किस तरह से ज्ञानवान हों और ज्ञानवान के साथ-साथ हम स्वयं अपने आप स्वाधीन हों। तो स्वाधीनता के लिए, जैसे मैनें अभी कहा, निडर होना होगा। हम डरते क्यों है? यह एक ऐसा सवाल है कि जो हम सब देख सकते हैं। अगर हम दुनियाँ की चीजों को अपनाते हैं, उनमें ममत्व भाव करते हैं, तो हमें डर होता है - नहीं तो डर की कोई गुंजाइश ही नहीं है। जब कभी भी हम डरते हैं तो डर ऐसा ही होता है कि कभी कोई दूसरा मर जाये, दूसरे को कोई कष्ट हो जाये, मुझे कोई कष्ट हो जाये। लेकिन वे कष्ट सब शारीरिक होते हैं।

 

भय सात तरीके के होते हैं। इसलोक भय, परलोक भय, मरणभय, रोग भय, अगुप्ती भय, अशरण भय और अकस्मात् भय। इन सातों भयों में अगर हम देखें तो ममत्वपना ही उसका कारण है। अगर हम लोक की चीजों को अपनी मानते हैं, तो उनके बिगड़ने में, उनके नाश होने में, हमें भय लगता है। लेकिन संसार की सभी चीजें नाशवान हैं। वह स्वभाव से ही उनमें बदलाव होता है। क्या कोई भी चीज हम ऐसी अपने भाव में ला सकते हैं जो हमेशा से रही हो और हमेशा से रहेगी। जब तक संसार की अवस्था ऐसी देखते हों, तो फिर हमें इन बाहरी चीजों में बिगड़ने में, सुधरने में क्या फायदा? कोई कारण नहीं है।

 

अपने शरीर को ही हम देखें। तो क्या हम कभी बच्चे नहीं थे जिस समय हमारा जन्म हुआ था, उस समय हमारी क्या हालत थी? क्या हम कोई काम कर सकते थे, कोई बात जानते थे? किसी किस्म का भी हम अपना काम कर सकते थे? तो फिर अब क्या हो गया तब भी हम ही थे, अब भी हम ही हैं - तो इसलिए अपने शरीर का क्या भय करें, अपने शरीर के सम्बन्ध में क्या कहें?

 

दूसरों का भय गया, अपना भय गया। मरण भय - मरना क्या है अगर हम मरने के बावजूद जिन्दा रहते हैं तो फिर मरने का सवाल ही नहीं रहता। और अगर मरने के साथ ही हम खत्म हो जाते हैं तो फिर काहे का भय? खत्म हो गये, हो गये। भय किसका हो ? क्या हमारा जीवन कोई बहुत सुखमय है जो कि हम इसमें ही रहना चाहें? इसके बढ़ाने में, इस जीवन के बढ़ने से क्या होता है ज्यों-ज्यों जीवन बढ़ता है, त्यों-त्यों जीवन के दुख, इसकी परेशानी और उसकी हैरानी बढ़ती जाती है। कभी भी, किसी सूरत में भी, इस जीवन के बढ़ने से, आयु के बढ़ने से, सुख बढ़ रहा है?फिर इस आयु के बढ़ने में हम क्यों लालायित हों? जाये तो जाये। कोई भी कारण, मरण भय का नहीं है।

 

रोग का भी यही सवाल है। हमें कभी भी कोई भी रोग ऐसा नहीं हुआ है, होगा, कि जैसे जिस समय हमारा जन्म हुआ था, उस अवस्था को हम प्राप्त हो जायें। कोई भी वक्त नहीं सकता, यह बात कभी हो सकती है। इसलिए रोग क्या है रोग तो सिर्फ इतना ही है कि हम इस रोग के कारण यह कर नहीं सकते, यह भोग नहीं सकते - बस और तो कुछ है नहीं। करने और भोगने में कमी होने का नाम ही रोग है। तो करना भी - वह तो भोगने के लिए है। जब हम भोग नहीं सकते, तो करने का क्या फिक्र करना। जब हमारा शरीर ही उन भोगों की तरफ नहीं जा सकता है, तो फिर हम करने का क्या फिक्र करें? और जितना भी रोग है, वह सिर्फ पहले की याद भर है। अगर याद हो कि में ऐसा था, ऐसे-ऐसे काम करता था, ऐसे भोग भोगता था। और अब वह काम कर सकता हूँ वह भोग, भोग सकता हूँ। यही रोग है, और कुछ भी नहीं।

 

रोग में जो शारीरिक तकलीफ होती है, वह सिर्फ उसकी तरफ सावधान होने से होती है। जरा सी देर के लिए भी अगर हम उधर से अपने मन को हटा लें, किसी दूसरी तरफ देख लें, तो वह तकलीफ, तकलीफ रहती ही नहीं है। यह तो तकलीफ सारी की सारी उनकी तरफ सावधान होने से, उनकी तरफ देखने से होती है।

 

ऐसे ही अकस्मात् भय है - अरे सारे हमने देखे। कोई और कहाँ से भय जायेगा? क्या करगा? जीवन-मरण से ज्यादा और क्या चीज सकती है कुछ भी नहीं। इसलिए भय करना, भयभीत होना, बिल्कुल ही जीवन के खिलाफ है। इससे जीवन, सिवाय दुखी होने के, और कुछ नहीं होता है।

 

 ऐसे ही इच्छायें हैं। जरा इच्छाओं को देखो तो सही वे क्या हैं। यह सिर्फ अपने दुख को दूर करने का एक उपाय है। अगर हम खाना चाहते हैं तो, भूख मिटाने के लिए ही तो चाहते हैं। अगर हम कोई धन-दौलत, रुपया-पैसा चाहते हैं तो काहे के लिए ? अपनी गरीबी को दूर करने के लिए चाहते हैं। अगर हम अपना कुटुम्ब चाहतें हैं तो अपने अकेलेपन को दूर करना चाहते हैं - और तो कुछ नहीं है। और ये तीनों बातें कुछ भी नहीं है। अकेला, तो सभी संसार अकेला है। दुख-सुख में कोई साथी नहीं हो सकता है। दुख-सुख एक व्यक्तिगत अपना ही है। दूसरा तो सिर्फ यह विकल्प करेगा कि मैं दुखी हूँ। लेकिन जिस दुख को में भोग रहा हूँ. उस दुख को कोई दूसरा भोग नहीं सकता। तो क्या हुआ - जिसका मेरे प्रति ममत्व भाव है वह मुझे दुखी देख कर स्वयं दुखी हो जायेगा और जिसमें ममत्व भाव नहीं है, वह काहे को दुखी होगा तो इसलिए जितनी भी इच्छायें हैं, चाहे कोई सी भी हो - वह सिर्फ एक भय को दूर का उपाय ही है। और जब हमने भय ही छोड़ दिया, निडर हो गये तो फिर इच्छा कहाँ से आयेगी ? किस बात की आयेगी ? कोई बात नहीं, कोई चीत नहीं।

 

 अगर हम निरइच्छुक और निर्भय हो जायें, तो हमारे से ज्ञान दूर नहीं। क्योंकि हमने बेहोशी में इन चीजों को नहीं छोड़ा है, बल्कि हमने इनके यथार्थ स्वरुप को जान कर इनसे मुँह मोड़ा है - छोड़ा नहीं, सिर्फ मुँह मोड़ा है यह कहाँ हैं कि ये मेरे नहीं हैं - मैं इनके बावजूद सुखी हो सकता हैं। मेरा जीवन, बावजूद डर के - निर्भय होने से, निरइच्छुक होने से, चल सकता है। चल ही नहीं सकता, बल्कि और भी ज्यादा अच्छा हो जाता है। क्योंकि उसमें स्वाधीनता जाती है। इस प्रकार यह एक कला है। यह कला हैं और सिर्फ अपने मन को मोड़ने से ये सब बातें हो जाती है। इसलिए आसान भी है।

 

अगर हम भय को दूर करने के लिए इच्छायें करते हैं तो हमें दूसरी चीजों का सहारा लेना पड़ता है। और दूसरी चीजों पर हमारा उस प्रकार का अधिकार नहीं है, जैसा कि हमारा हमारे मन पर है। हमारे मन पर जो अधिकार है, उसको कोई भी, कभी भी, हमारे से दूर नहीं कर सकता है। वह हमेशा अपने ही साथ रहा है।

 

मेरा मन तो मेरा मन ही है। इसलिए जब मेरे मन ने ही भय और इच्छा का स्वरुप जान लिया है, जब तक नहीं जाना था, तब मेरा मन इधर-इधर जाता था, वह कुछ-कुछ कोशिश करता था - लेकिन जब उसने जान लिया है कि भय करना फजूल हैं, और उसका उपाय उससे भी ज्यादा फजूल है, जब दोनों बातें ही नहीं रहीं, तब फिर इससे ज्यादा आसान और क्या हो सकता है जब चाहे तब कर लो। जिस समय भी हम सुखी होना चाहें, एक मन को मोड़ो और सुखी हो गये। और तो कुछ करना नहीं है। शरीर का तो सम्बन्ध सुख से है नहीं। अगर सम्बन्ध है तो बस एक मन से है। ज्ञान का भी सम्बन्ध उससे है नहीं। और मन हमारा स्वाधीन है।मन को कोई अन्य पुरुष, अन्य भाव पलट नहीं सकता। उसको में ही पलट सकता हूँ और जब चाहे जब पलट सकता हूँ।

 

इसलिए सुखी होना, मन के आधीन होने से और मेरा उस पर पूरा अधिकार होने से, सहज हो जाता है। और हर पुरुष, हर व्यक्ति, उस स्वरुप को पा सकता है। और यही है जीवन का जीवनपना कहो, सर्व सुन्दरता कहो - और तो कुछ है नहीं। जीवन सुन्दर इससे ही होता है कि वह सदा सुखी रहे। लेकिन सुख दूसरे के आधार पर, दूसरे की चीजों से, कभी पैदा है सकता है, होगा। वह तो अपने मन से ही पैदा होता है। जिसमे वह सुख समझ लेता है, वही उसको सुख का कारण दिखाई देता है। जब तक पर-वस्तुओं पर, पर-व्यक्तियों पर, अपने सुख का आधार रखता है तो वह सुखी नहीं हो सकता है, क्योंकि अपने मन पर तो उसका अधिकार है, लेकिन पर चीजों पर और पर-भावों पर उसका कोई अधिकार नहीं है। वे अपने स्वभाव से चलती है।

 

सूरज निकलता है अपने स्वभाव से। छुपता है तो भी अपने स्वभाव से। सूरज को मैं छुपा सकता हूँ निकाल सकता हूँ। लेकिन, उसके निकलने में और छुपने में सुखी-दुखी हो सकता हूँ। सुखी-दुखी होना एक विकल्प है। एक मन की बात है। बहुत सारे व्यक्ति रात्रि को पा कर ही सुखी होते हैं। बहुत सारे व्यक्ति दिन निकलने में ही, सूरज के निकलने में ही सुखी होते हैं। तो जब हम इस बात को स्वयं-सिद्ध स्वयं अपने आप, संसार में इसी समय देख सकते हैं। देख ही नहीं सकते बल्कि उसमें श्रद्धा भी रखते हैं। फिर क्या मुश्किल है फिर निर्भय होना क्या मुश्किल है।

 

ज्यों ही हमारे से ममत्वभाव दूर होगा, हम निर्भय हो जायेंगे और निरइच्छुक हो जायेंगे। और ये दोनों बातें जब इस बात पर आलम्बित होंगी कि भय करना गलत है, इच्छायें करना उससे भी ज्यादा गलत है, तो फिर सुखी होने में क्या देर है ? कौन पुरुष है, कौन व्यक्ति है कि जो इस तरह की मान्यता करके, इस तरह के स्वरुप को देख कर सुखी हो। हर एक पुरुष-कैसा भी हो, किसी अवस्था में हो - गरीब हो, अमीर हो, राजा हो, रंक हो, बिमार हो, अच्छा हो - किसी अवस्था में हो - ज्ञानी हो, अज्ञानी हो, वृती हो, अवृती हो - जो भी वह सुखी-दुखी होता है, इस समय वह अपनी स्वाधीनता से होता है, पराधीनता से नहीं, बाहरी चीजें उसे सुखी-दुखी नहीं करती हैं। वह अपनी मान्यताओं के आधार पर सुखी-दुखी होता है। तो यह नहीं है कि मैं स्वाधीन होउंगा - नहीं, मैं तो स्वाधीन हूँ। हूँगा तो वह होगा जो पराधीन हो। लेकिन, क्या में इस समय पराधीन हूँ बिल्कुल नहीं। इस समय तो मैं स्वाधीन हूँ। क्योंकि अगर में किसी चीज को चाहता हूँ या डरता भी हूँ तो भी अपनी ही मान्यताओं के आधर पर कर रहा हूँ। जब इन अवस्थाओं को में स्वयं सिद्ध कर रहा हूँ अपने आप से कर रहा हूँ तो इन को जीतने का मार्ग मिल गया है। मैं ही कर रहा हूँ, में ही करूं - तो जीत गया। और क्या करना है। मैं ही तो कर रहा हूँ स्वाधीन हो कर कर रहा हूँ। चीजें मुझे कुछ नहीं कह रही हैं। मेरा कुटुम्ब मुझे कुछ नहीं कह रहा है। वह मेरे ऊपर दबाव डाल सकता है, वह किसी किस्म का प्रभाव मेरे ऊपर कर सकता है। मैं ही उनके पीछे-पीछे फिर कर उनको अपना बनाता हूँ। उनके साथ दुखी-सुखी होता हूँ। यही मेरी स्वधीनता है। लेकिन में अपनी स्वाधीनता को भूल गया हूँ। उस याद करना है और जानना है। और स्वाधीन होना है। यही मेरे लिए कार्य है, और यह कार्य कोई ऐसा नहीं है कि जो गलत हो, ही हो सकता है। नहीं। यह मेरा स्वंय-सिद्ध अधिकार हैं - स्वयंसिद्ध अधिकार है कि में स्वाधीन हूँ। पराधीन कभी हुआ हूँ और कभी हूँगा। जब कभी भी, जो कुछ भी मैंने किया है अपनी ही स्वाधीनता से किया है। और जो मैंने नहीं किया है तो भी मैंने डर या इच्छायें की हैं, वह भी मैंने अपनी स्वाधीनता से की है। अगर में किसी से डरा हूँ तो दूसरी चीजें ने मुझे कभी नहीं डराया।

 

 देखो तो सही, कौन सी चीज है कि जिसने कभी डराया हो। वह तो अपने स्वभाव में, जैसा था उसका, वैसी ही होती है। लेकिन मुझे डर लगता है। मेरा मन जो है यह कहता है - इससे तुझे यह हो जायेगा, वह हो जायेगा बस और क्या है ऐसे ही जितनी इच्छायें मैंने की हैं, सभी अपनी ही स्वाधीनता से की हैं, पर की स्वाधीनता से नहीं। अगर मुझे भूख लगी है, मैंने खाने की इच्छा की है, तो अपने आप ही की है - भूख ने कुछ नहीं कराया है। अगर, मेरा ध्यान उधर से हट जाये तो मुझे भूख कुछ भी नहीं कहेगी, (भूख) लगेगी ही नहीं, किसी किस्म का दुख देगी नहीं। वह तो (दुख) देती ही इसलिए है कि, मैं उस भूख को भूख समझ कर उसको मिटाने की कोशिश करता हूँ। और वह क्या होता है कि ज्यों-ज्यों में उसको मिटाने की कोशिश करता हूँ, त्यों-त्यों वह आगे के लिए फिर दोबारा लगने का काम शुरु हो जाता है। ऐसा नहीं कि अगर मैंने का लिया तो हमेशा के लिए भूख मिट जाये। नहीं। वह इस वक्त मिटने का एक धोखा देती है और अगले खाने का, भूख पैदा करने का, काम करती है।

 

इसी तरह से सभी औषधियों के लिए। यही काम है कि वे रोग को मिटाती नहीं हैं, बल्कि आगे रोग पैदा करने का कार्य करतीहैं। कोई भी औषधि ऐसी नहीं हैं कि जो रोग को मिटा दे और कोई और रोग पैदा करें। हर एक दवाई, हर एक औषधि जहाँ एक चीज को वह दूर करती है तो दूसरी चीज को वह पैदा करती है। इसलिए कोई भी वस्तु ऐसी नहीं है, कोई भी सम्बन्ध ऐसा नहीं है कि जो हमेशा के लिए हमारी इच्छाओं को या भोग को मिटा दे, बल्कि, हर एक भोग थोड़ी देर के लिए यह यकीन दिलाता है कि वह भोग, वह डर और इच्छा मिट गई है, लेकिन वह मिटती नहीं है, बल्कि आगे को दोबारा उसी काम को, करने की आदत डालता है। कोई आदत अपनी हमारे लिए आदत बन जाती है - एक संस्कार बन जाती हैं। और जिस चीज से हम नफरत करते हैं, उससे हमें हमेशा के लिए एक नफरत सी उत्पन्न हो जाती है। इस आदत का पड़ना या संस्कार का पड़ना ही हमारे लिए बन्धन हैं। इस वास्ते, इच्छा का करना, भयभीत होना और चीजों से नफरत करना - यही बंधन है, पराधीनता का कारण है। और जो स्वाधीन होना है, इच्छा नहीं करना, डरना नहीं और किसी चीज से नफरत नहीं करना - यही मुक्ति है, मोक्ष है। क्योंकि इससे कोई स्वभाव नहीं बनता है, और इससे हम स्वाधीन होने के साथ-साथ बिल्कुल आजाद से हो जाते हैं। और आजादी का नाम ही मोक्ष है। इसलिए इस तरह के ज्ञान को ही ज्ञान कहते है, समज्ञान कहते हैं, और इसका ज्ञान होना या इसका उल्टा ज्ञान होना, वही अज्ञान हैं, वहीं हमारी बदसूरती है। और मोक्षा का होना, स्वाधीन होना, यही सर्व-सुन्दरता है। इसमें ही समस्त चीजों से किसी प्रकार का लगाव करना, ममत्व करना - यही आनन्द का कारण है। इससे ही हमारा जीवन वीर बनेगा, स्वाधीन बनेगा, सर्व सुन्दर बनेगा और आनन्दमयी बनेगा। यही एक जीवन कला है। इसी तरह से, इसके द्वारा कोई भी, बड़ी आसानी के साथ, अपने आप, बिना किसी दूसरे की सहायता से, मोक्ष को पा सकता है और यही जीवन कला का उद्देश्य है। ऐसा करने से हम सदा के लिए सुखी हो जायेंगे और पीछे भी जो अरुचि हमें उत्पन्न हुई थी, वह विनाश को प्राप्त हो जायेगी।

 

इसलिए इस जीवन-कला की ही जय !